About Pankaj
पंकज –अपन तो
यादें रह जाती हैं, छोटी छोटी बातें रह जाती हैं lअपन तो पंकज का डायलाग है l पंकज मेरा छोटा भाई और शानदार दोस्त…………..
मुझे याद है पंकज का बचपन lटक्कल [मेरा भाई] और पंकज हमेशा ताकत की आजमाइश करते रहते थे l सीधे शब्दों में लड़ते रहते थेl हां l वो बच्चों वाली लड़ाई थी, पर लातें, घूंसे ,चांटे, और बातें दादी को गुस्सा दिलाते थेl किसी को भी गुस्सा आ जाये इतना परेशान करते थे दोनोंl फिर बड़ी चाची[टक्कल की माताजी] आती थीं और टक्कल की पिटाई हो जाती थी,माँ टक्कल को पिटता हुआ देखती थी l उन्हें गुस्सा आ जाता था l दिन भर घर के काम फिर बच्चों की किचकिच lवो लकड़ी की झाड़ू उठाती थीं और पंकज की पिटाई हो जाती थीlफिर माँ और बड़ी चाची दयाभाव में रोते रहते थे और पंकज-टक्कल मस्ती करने और लड़ने के लिये कहीं और चले जाते थे l
शायर पते की बात कहता है ‘’कभी तन्हाइयों में यूँ ,हमारी याद आएगी,अँधेरे छा रहें होंगे ,कि बिजली कौंध जाएगी ‘’
पंकज जैसे व्यक्तित्व हमारे आसपास कम ही मिलते है lकुछ लोग जीवन का नमक होते हैं ,उनसे जीवन का स्वाद बड जाता है पंकज का जन्म २९ अप्रैल १९७८ ,भोपाल ,में हुआ था ,बचपन से ही बहुत ज्यादा शैतान था पंकज lमुझे याद है पड़ोस वाली कमला चाची lवो पंकज से बहुत प्यार करती थींlहमारा मकान तीन मंजिला था ,और हम अपने घर की छत पर टुकटुक खेलते थे, तब हमें क्रिकेट के बारे में ज्यादा पता नहीं थाlहमारी गेंद पन्नी में कचरा भरकर बन जाती थी lएक बार पंकज का शॉट छत पार कर कमला चाची के घर चला गयाlनियम था कि जो भी गेंद उडाएगा ,वही लेने जायेगाlपंकज गेंद लाने के लिये गयाlकमला चाची ने गुस्से में गेंद को चूल्हे में डाल दियाlपंकज का तो फिर कोई आर-पार् नही थाlवो चिल्लाने लगाlपर मैंने उसे ऊपर बुला लियाlकचरे की गेंद पिन्नी में भरकर हम फिर बना लेते lपर अब हमने पत्थर की गिट्टी को गेंद बनाकर टुकटुक खेलना शुरू कर दिया थाlपंकज जान-बूझकर शॉट कमला चाची के घर तक पहुंचाता था और फिर जब वो चिल्लाती थी कि पत्थर क्यों फेंक रहे हो तो पंकज कहता था ll’’हमारी गेंद है,जला दो’’/
नींलम पार्क-----
हमारे बचपन का पहला खुला पड़ाव जहांगीराबाद लिली टाकीज के पास हरे भरे पेड़ और बगल में छोटा तालाब। नीचे से बहुत उपर तक पानी फेंकते फव्वारे। मुझे याद है हमारा स्कूल भारती विद्या मंदिर नीलम पार्क के पास में ही था। हम सुबह स्कूल जाते थे और दोपहर वापस आते समय अक्सर नीलम पार्क का चक्कर लगा लेते थे। पंकज, टक्कल, रवि वहीं रोड पर लगे खंभों पर चढ़ने लगते थे और मुझे बड़ी मुष्किल से उन्हें डांटकर उतारना पड़ता। षाम को भी अक्सर हम लोग खटलापुरा मंदिर छोटे तालाब के दूसरे किनारे मस्ती करने चले जाते। वहां पंकज लोग तालाब के किनारे खूब मस्ती करते और मैं पेड़ के नीचे अपने ध्यान में मग्न रहता था।
गैस काण्ड
पंकज तब सिर्फ पांच साल का था और मैं ग्यारह साल का । भोपाल में तब गैस निकली थी। जहरीली एमआईसी मिथाइल आइसो सायनाइड। 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे। भोपाल को खाली करवाया गया था। ताकि यूनियन कार्बाइड कंपनी के सिलेंडर में बची गैस खाली करवायी जा सके। भोपाल के लिए ये दुख का समय था। पर पंकज और उसकी टीम को तो छुट्टियां मिल गयी थी। हम लोग आष्टा गये थे जहां मेरे पापा बैंक आॅफ इंडिया में मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत थे। उन्हं वहां बैंक से लगा हुआ घर एलाट था। हम सारे लोग एक महीना वहीं रहे। पंकज और उसकी टीम सबेरे से ही छत की झाडू लगाने में व्यस्त हो जाते थे। फिर हम लोग बेडमिंटन खेलते थे। जहांगीराबाद में हमारे घर की छत खेलने का मैदान थी जहां हमने जीवन के बहुत सारे खेल समझे और खेले भी। पंकज को छत बहुत पसंद थी। हम लोग बैठकर घंटों आसमान में सूरज, चांद और तारे देखते रहते। जीवन के हर पहलू के बारे में पंकज अपनी बात खुलकर रखता था। और हम लोग खुले आसमान के नीचे खुले दिमाग से जीवन को समझने का प्रयत्न करते।
क्रिकेट टीम
पंकज क्रिकेट का दीवाना था। सचिन तेंदुलकर उसके लिए भगवान के बराबर थे। वो भारतीय क्रिकेट टीम की कोई बुराई नहीं सुनता था। हम लोग खूब क्रिकेट खेलते थे। घर की छोटी गैलरी में रोज टूर्नामेंट आयोजित किये जाते थे। अलग-अलग देषों की टीम खेलने आती थी और वल्र्डकप की जीत और हार तय होती थी। हमारी अपनी दुनिया थी। मुझे याद है पंकज के बाल माथे पर लटकते थेे और वो बार-बार अपनी भौं उठाकर अपने बाल देखता था। मुझे पंकज और उसकी पूरी टीम का बड़ा भाई और उसका कोच बनने का गौरव मिला है। जहांगीराबाद के खड्गसिंह के मैदान में पंकज बैटिंग कर रहा होता और मैं बालिंग। जैसे ही मैं बाल डालने वाला होता, पंकज अपनी भौं उठाकर अपने बाल देखता और मैं यार्कर बाॅल डाल देता। पंकज बोल्ड हो जाता था। और फिर उसे गुस्सा आता था। सब लोग उसे घेरा बनाकर चिढ़ाने लग जाते थे। पर वो फिर बैंटिग ले लेता था। घर में जब भी टीवी पर क्रिकेट आ रहा हो तो कोई और चैनल नहीं बदल पाता था। भले ही वो श्रीलंका और बांगलादेष का मैच हो। पंकज तो क्रिकेट मैच की हाई लाइट भी देख लेता था। उसे क्रिकेट का इतना शौक था।
सिंपल कोचिंग
तब पंकज कालेज में पड़ता था। हमने जहांगीराबाद में ही दो कमरे किराये से लेकर सिंपल कोचिंग की शुरुआत की थी। मुझे याद है सुबह उठकर हमारी टीम क्रिकेट खेलने की बजाय पलंग उठाकर पैदल-पैदल ही लगभग दो किलोमीटर दूर सिंपल कोचिंग पर पहुंच गये। वहां कमरों की सफाई की, सामान जमाया, बोर्ड लगाया। इतने में एक भाई पोहा-जलेबी ले आया। वहीं सबने पार्टी की और फिर क्रिकेट खेलने चले गये। हम लोग कभी भी काम से मन नहीं चुराते थे। चाहे कोई भी काम हो । हमने झाडू लगाने से लेकर ध्यान करने तक सब कुछ सीखा। और उसका अपने जीवन में इस्तेमाल भी किया। पंकज जैसे लोग बगीचेे के फूल की तरह होते हैं, जिनके खिलते ही तितलियां और भांैरे अपने आप आ जाते हैं। सिंपल कोचिंग पंकज के लिए एक बगीचे की तरह बन गयी थी। पंकज का मतलब होता है कमल। वो कीचड़ में भी खिलता है। और सारे फूलों से ज्यादा सुंदर नजर आता है। पंकज को भी तितलियां हमेषा घेरे रहती थी। पर शायद नाजुक चीजें पंकज को ज्यादा पसंद नहीं थी और वो ज्यादा दुनियादारी झेल नहीं पाता था। उसे अपनी टीम के साथ मजा करना ही अच्छा लगता था। नवरात्रि के दिनों में हम बारह-तेरह लड़के देवी जी की झांकियां देखने निकल जाते। पैदल-पैदल भोपाल के एक कोने से दूसरे कोने मस्ती करते, टप्पे मारते, आइस्क्रीम खाते, चालीस-पचास किलोमीटर हम लोग चलते रहते। देर रात जब हम घर आते तब बहुत डांट पड़ती थी। पर उसका आनंद ही अलग था।
आर के एजुकेषन बरेली
सन् 1996 में हमने सिंपल कोचिंग की शुरुआत की। तीन साल में पंकज और हमारी टीम गुरुजी के रुप में विख्यात हो गयी थी। पर बचपन से ही हम लोग कभी गांव जाने का सपना देखते थे। ताकि बैलगाड़ी में यात्रा करते नदी के किनारे सूर्यास्त या सूर्योदय देखा जा सके। हमारे एक मित्र और बड़े भाई श्री वीरेंद्र पटेल भोपाल से लगभग 120 किलोमीटर दूर बरेली में रहते हैं वो हमसे अक्सर कहते थे कि बरेली चलो। हमें भी लगा अच्छा मौका है। इस बहाने गांव देखने का सपना भी पूरा हो जाएगा। वैसे भी हम भाई लोग कुछ नये काम करने में हमेषा ज्यादा रुचि रखते हैं। हमने बरेली जाकर अपना स्कूल शुरु किया। आरके एजुकेषन। जो हमारे बाबा के नाम पर स्थापित किया गया। मुझे याद है बरेली की पहली रातए दिन भर बिजली गायब थी। हमारे स्कूल का उद्घाटन और सभी कार्यक्रम हालाॅकि सुचारु हो गये परन्तु हमारे लिए ये पहला अनुभव था जब सुबह से लेकर रात तक बिजली आयी ही न हो। रात एक बजे वीरेंद्र भाई साहब, मैं और पंकज छत पर खुले आसमान के नीचे दूर बिखरे तारे देख रहे थे। दिन की सफलता से हम प्रसन्न थे। और टिमटिमाते तारों को देखकर पंकज कह रहा था- वीरेंद्र भाईसाहब ष्ष्बाकी सब तो ठीक है पर बरेली डब्बा हैष्ष्।
दादी की डेथ
लगभग चार साल बरेली में रहकर पंकज का मन ऊबने लगा था। पहली रात पंकज ने देखा कि बरेली डब्बा हैं। पर चार साल के अनुभव ने हमें यह सिखाया कि उस डिब्बे में कोई ढक्कन नही है। वो कुछ संभालकर रख नहीं पाता। पंकज बरेली से बाहर निकलना चाहता था। वहां भोपाल में दादी की तबियत थोड़ी खराब रहने लगी थी। पंकज ने शादी नहीं की। क्योंकि उसे कोई बंधन पसंद नहीं था। परन्तु प्रेम के बंधन हमेषा मजबूत रहते हैं। दादी से सभी बच्चों का लगाव अटूट था। पंकज बरेली से भोपाल आ गया। थोड़े समय बाद उस सत्र को खत्म करके मैं भी भोपाल आ गया। अभी हमारे भाई पवन चतुर्वेदी और वीरेंद्र भाई साहब के संरक्षसा में आरके एजुकेषन षिक्षा के प्रसार में अपना योगदान निभा रहा है । यहां भोपाल में आकर पंकज को थोड़ा सुकून मिला। अपना घर आखिर अपना ही होता है। चार साल के बरेली अनुभव ने हमें घर से दूर रहना सिखाया। अपनी जिंदगी अपने काम अपने दम से कैसे किये जाएं? जीवन की चिकनी सतह पर अपने पैर कैसे स्थापित करें? अपना नाम कैसे बनाएं? ये सब हमें बरेली ने सिखाया।
यहां भोपाल में जीवन दादी के चारों ओर सिमट गया था। उनकी तबियत अब ज्यादा खराब रहने लगी थी। हम दिन-रात अक्सर दादीके पास ही रहते थे। मुझे याद है वो मंगलवार का दिन था। 28 अप्रैल । अगले दिन पंकज का जन्मदिन था । पर दादी की तबियत के कारसा हममें से किसी को कुछ याद ही नहीं था। 28 अप्रैल की रात दादी ने अपनी आखिरी सांस ली और फिर पंकज ने जीवन भर अपना जन्मदिन नहीं मनाया।
बड़ी चाची
दादी का जाना हमारे घर के लिए गैसकांड से भी ज्यादा बड़ा धमाका था। हमने उससे पहले अपने घर में कोई मौत नहीं देखी। और दादी ने हमें दुनिया के झंझटों में कभी पड़ने भी नहीं दिया। दादी के जाने के बाद सभी थोड़ा उदास रहने लगे थे। ऐसे में बड़ी चाची (सुषमा चतुर्वेदी) एक झिलमिल धूप या रिमझिम बौछार की तरह हमारे जीवन को सींचती रही। पंकज का लगाव बड़ी चाची से बहुत ज्यादा रहा। क्योंकि बचपन से ही पंकज और टक्कल के झगड़े सबसे पहले बड़ी चाची तक ही पहुंचते थे । और हमारे संयुक्त परिवार में मां और चाची का अंतर हमें कभी पता ही नहीं पड़ पाया। बड़ी चाची की तबियत अचानक बिगड़ गयी। उन्हें फेफड़ों से संबंधित कोई बीमारी थी। पंकज एक भावुक हृदय और संवेदनषील आत्मा था। किसी का भी दुख उसके हदय में चुभने लगता था और वो उसके दुख को दूर करना चाहता था। दादी का जाना वैसे ही हमारे घर को तोड़ चुका था। बड़ी चाची की असामयिक मृत्यु वज्राघात की तरह पड़ी। और हमारे दिल टूट गये। पंकज बहुत उदास रहने लगा था। मुझे याद है हम आसमान में तारों के बीच दादी और बड़ी चाची को ढंूढते थे। पर जो इस भवसागर को छोड़कर चले जाते हैं, वो विमुक्त हो जाते हैं। शायर कहता है-‘‘ जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वो फिर नहीं आते।’’
ग्रेनीस गार्डन
बरेली से भोपाल आकर पंकज और रवि ने मिलकर दानिष नगर में एक षिक्षा संस्थान की स्थापना की जिसका नाम ग्रेनीस गार्डन रखा। और फिर एक और उपलब्धि पंकज के कदमों के साथ बहुत दूर तक आ गयी। यहां भी एक बगीचे में खिले हुए कमल के फूल की तरह पंकज हमेषा तितलियों, भ्ंावरों और चाहने वालों से घिरा रहता। यहां तक कि हर तीन चार महीने में वो अपनी सिम का नंबर बदल देता था। ताकि लोग उसे ज्यादा परेषान ना कर सकें। रवि ने पंकज के साथ मिलकर एक प्रतिष्ठित संस्थान स्थापित किया। परन्तु पदार्थ की दुनिया की सफलता पंकज को कभी भी बहुत गहरे तक प्रभावित नहीं कर पायी। पंकज अपनी बुलेट चलाता था। और वो जहां से गुजर जाता था, लोग पलटकर देखते थे।
व्यक्तित्व के द्वंद्व
कोई कैसा है यह समझना इतना आसान नहीं है। हर व्यक्ति का एक व्यक्तित्व होता है और हमने पंकज और उसकी टीम के साथ कई वर्षाें तक व्यक्तित्व और उसके विभिन्न अवयवों पर खूब काम किया। मुझे याद है व्यक्तित्व चर्चा के समय जब बाकी लोग किसी व्यक्ति से प्रभावित नजर आ रहे होते तब पंकज उसकी आलोचना कर देता। जब बाकी लोग किसी व्यक्ति की बुराई निकाल रहे होते तो पंकज प्रषंसा का कोई तत्व ढूंढ लाता। हम कई व्यक्तित्वों पर चर्चा करते थे। उनकी अच्छाइयां, बुराइयां जीवन में किये गये काम। मैंने महसूस किया कि पंकज जीवन को एक नवीन पहलू से देखा करता था। और अधिकतर लोग उससे सहमत न होते हुए भी उसके तर्क से प्रभावित हो जाते थे। व्यक्तित्व के द्वंद्व पंकज के साथ अंतिम समय तक चलते रहे। पर पंकज का व्यक्तित्व किसी भी द्वंद्व से परे था।
माल्थस का भूत
एक बार व्यक्तित्व पर चर्चा करते समय हम लोगों ने दस विकल्प लिये और यह निर्धारित करने के लिए विचार विमर्ष करने लगे कि उनमें से कौन सा व्यक्तित्व सर्वोपरि होना चाहिये। माल्थस एक अर्थषास़्त्री के रुप में हमारा विकल्प थे। और भी कई विकल्प थे, जो प्रभावी थे। परन्तु माल्थस के नाम पर इतनी लंबी और जोरदार बहस हुयी कि उस दिन के बाद माल्थस का भूत पंकज के साथ हमेषा के लिए चिपक गया। और जब भी कोई विस्फोटक चर्चा होती तो हम पंकज को माल्थस की याद दिला देते। पंकज संवेदनषील था और तर्क के द्वंद्व में असहज महसूस करता था। उसकी बैचेनी उसके शब्दों और भावों से नज़र आने लगती थी। मनुष्य के भीतर छिपे हुये व्यम्ति पर पंकज की दृष्टि किसी एक्सरे किरसा की तरह व्यवहार करती थी। माल्थस का भूत अभी भी अंतरिक्ष में कहीं मंडराता होगा। शायद पंकज से उसकी मुलाकात हुयी हो। मैं जानना चाहता हूं क्या हुआ होगा?
छींद यात्राएं
बरेली से लगभग आठ किलोमीटर दूर हनुमान जी का एक सिद्ध धाम है। छींद वाले बाबा। पंकज और हमारी टीम सैकड़ों बार छींद गये होंगे। ऐसा माना जाता है कि लगातार पांच बार जाकर कोई प्रार्थना की जाये तो वो अवष्य पूरी हो जाती है। पर मुझे याद है कि हम लोग सिर्फ छींद यात्रा के उददेष्य से ही छींद जाते थे। हमारी मनोकामना ही यह थी कि हम सुंदरकांड टीम के साथ प्रकृति की गोद में कुछ सुनहरे पल बिता सकें। छींद यात्राओं के दौरान हम खूब बांतें करते थे। गाने सुनते थे। और ढाबों पर पार्टियां होती थीं। किसी भी मित्र का जन्मदिन मनाने के लिए छींद वाले बाबा हमारा पसंदीदा ठिकाना होता था। यह हनुमान जी का ही आषीर्वाद था कि अपने अंतिम समय तक पंकज स्वस्थ और प्रसन्न रहे।
सुंदरकांड
एक बार छींद यात्रा के लिए कार से जाते समय हमारा मित्र विष्साु रावत कहने लगा कि हम लोग क्या केवल पार्टी करने के लिए छींद जाते हैं? और उसने सब लोगों को सलाह दी कि हम लोगों को थोड़ा भगवान का नाम भी ले लेना चाहिए। सब मान गये। और विष्साु के नेतृत्व में वहीं कार में बैठे-बैठे श्री विष्साु मानस मंडल की स्थापना कर डाली। जो तब से अब तक अनवरत सुंदरकांड और रामचरितमानस के संदर्भों और अर्थों को समझने के लिए लगातार कार्य कर रहा है। मनोज शुक्ला जो कि एक आई टी इंजीनियर हैं, रवि चतुर्वेदी, मोनू, मनीष शुक्ला, अजय शर्मा, मानस, व्योम और हमारे कई मित्र इस मंडल के नियमित सदस्य हैं। मुझे याद है पंकज को ढोलक बजाते हुये वीर रस में गाने का शौक था। और वो सीता की विपत्ति के दोहे भी वीर रस में गाता था। हमने उसे समझाने का प्रयास किया और अंत में हम समझ गये। पंकज ने वीर रस का साथ अंतिम समय तक निभाया।
कमजोर का साथी, हमारा हाथी
एक बार सब चर्चा कर रहे थे और किसी एक की बुराइयां निकालते हुये उस पर जैसे सबने विचारों का हमला कर दिया था। और वो थोड़ा रुआंसा हो गया। वो कमजोर पड़ गया। पंकज अपनी जगह से खड़ा हुआ। और फिर वही कहानी- ‘‘कमजोर का साथी हमारा हाथी।’’ उस व्यक्ति के पक्ष में लड़ते हुये पंकज ने सबकी आंखों में आंसू ला दिये। बांतों और तर्कों में पंकज को हराना आसान नहीं था। वो किसी को भी कमजोर पड़ते देखता तो उसके साथ हो लेता। शायद शोषित और कमजोरों का कोई मसीहा हमारे घर में पंकज का रुप लेकर आ गया था। केवल घर में ही नहीं सड़क पर या बाजार में, स्कूल या कालेज पंकज ने हर जगह कमजोर की आवाज को सहारा दिया। आज भी वो लोग जब पंकज की याद करते हैं तो ये सोचते हैं कि क्या कोई और ऐसी आत्मा हमारी आवाज बनकर इस दुनिया में आएगा?
छोटी चाची
हम एक संयुक्त परिवार में पले-बड़े। हमारे छोटे चाचा श्री गोविंद चतुर्वेदी सब बच्चों को बहुत प्रेम करते थे और उनकी डांट से सबको बहुत डर भी लगता था। सन् 1982 में गोविंद चाचा की शादी हुयी । तब पंकज सिर्फ 3 साल का था। उसी वर्ष बाजार में टीवी लांच हुआ था। और हमने चैबीस इंच का टेलीविस्टा का टीवी खरीदा। शुरुआत के कुछ दिनों में हम दिन भर टीवी के सामने बैठे रहते। भले ही बंद टीवी स्क्रीन पर हमारी परछाई नजर आ रही हो। तब बहुत कम घरों में टीवी उपलब्ध थे। तब हमारे पड़ोसी हमारे घर में ही आकर महाभारत, रामायसा देखा करते। मुझे याद है कमरा पड़ोसियों से भर जाता था। पंकज और हमारी टीम तांड़ ‘‘बालकनी’’ पर बैठकर टीवी देखते थे। छोटी चाची श्रीमती सीमा चतुर्वेदी के आने के बाद गोविंद चाचा भी ग्वालियर से वापस भोपाल षिफ्ट हो गये । हम लोग खूब मस्ती करते थे। और खूब डांट खाते थे। जीवन मजे से गुजर रहा था। जब हम थोड़े बड़े हुये तो जहांगीराबाद वाला घर हम लोगों के लिए थोड़ा छोटा पड़ने लगाा। तंग गलियों से दूर अहमदपुर आकर हमने एक बड़ा घर बनवा लिया जहां खुला वातावरसा पार्क और पेड़ छोटी चाची के जीवन के लिए एक ताजा हवा की तरह आये। पर छोटी चाची की तबियत अक्सर खराब रहती। डाॅक्टर ने बताया कि उन्हें कैंसर है। घर के संवेदनषील सदस्य तन-मन-धन और आत्मा से छोटी चाची की सेवा करते रहे। परन्तु तीन साल की सेवा सुश्रुषा उन्हें हमें छोड़ जाने से रोक नहीं पायी। यही जीवन है। जो आया है, वो जाएगा। पर हमारे घर में लगातार होने वाली मौत की घटनाओं ने हम सभी के मन पर गहरा प्रभाव डाला।
जिंदगी एक सफ़र है सुहाना
छोटी चाची का हमारे बीच से जाना थोडा ज्यादा कष्टदायक था /पंकज ने छोटी चाची की खूब सेवा की/पर ये जीवन है /सबको जाना है /हमें लगता है कि समय आएगा /हम सब जीवन के मायने तलाशने की कोशिश कररहे थेl/सब एक दुसरे को समझने और समझाने की कोशिश कर रहे थेl/पर शायद मौत कुछ और सौदा करके आई थी / छोटी चाची के शवदाह के बाद जब हम घर आये तो एक अजीब उदासी थी lहम समझ नहीं पा रहे थे मौत की चाल/हम सब शतरंज खेलते हैं /पंकज तो शतरंज का बेताज बादशाह था हमारे घर में शतरंज के कम्पटीशन होते थे ,गोविन्द चाचा और पंकज का फाइनल खेलना पक्का होता था /नाश्ता,चाय खूब सारी बातें और मस्ती/ पर मौत की चाल हम पहचान नहीं पाएl/ छोटी चाची के पुष्प विसर्जन के लिये पहले हम सब सुभाष नगर श्मशान गए ,वहां जली हुई अस्थियों को एकत्रित करते समय सभी छोटी चाची और मौत के चिंतन में मग्न थे/अस्थिओं को एकत्रित कर हम बुदनी में नदी के तट पर प्रवाहित करने के लिये चल दिएl/
अंतिम यात्रा --
एक जिस्म की मौत एक इंसान की मौत नहीं होती/ उस दिन हमे लग रहा था कि छोटी चाची हैं /हमारे पास तीन गाडिया थी जिसमे हम तेरह लोग थे | किसी ने कहा भी था कि कोई उतर जाओ यहीं,पर कौन उतरता ?सब उस दिवंगत आत्मा की अंतिम यात्रा में उनके साथ होना चाहते थे/हमने कुछ मित्रों से कहा भी कि चलो ,पर जीवन ने कुछ और ही सोच रखा था /हम लोग चल दिए/पंकज हौंडा सिटी चला रहा था/ हम लोग बुदनी नदी के तट पर पहुंचे/वहां एक नाव वाले को बुलाया और अस्थियाँ नाव में लेकर चल दिए | नदी के बीच में जाकर हमने अस्थि विसर्जन किया और छोटी चाची की आत्मा की शांति प्रार्थना करते हुए हमारी नाव किनारे परा गई/सब थके हुए और उदास थे| सुबह से किसी ने कुछ खाया भी नहीं था/मुझे याद है नदी से वापस आते समय छोटे चाचा मेरे कन्धों पर हाथ रखते हुए कह रहे थे ‘’अब तो जाने की इच्छा है बस’’मौत हमरे इरादे सूंघ लेती है|
हम शान्त उदास चुपचाप वापस आ रहे थे /सबसे आगे टक्कल कि गाड़ी , फिर पंकज , फिर हमlहमने सीधे रास्ते आनेकी बजे सलकनपुर वाला रास्ता निर्धारित किया, मौत हमसे कुछ भी करवा सकती हैl सलकनपुर मंदिर के पहाड़ को देखते हुए हम चले जा रहे थे कि एक जोर की आवाज़ सुनाई दी | थोड़ी देर में टक्कल वापस आता हुआ बोला, जल्दी पहुँचो, पंकज भाई का बड़ा एक्सीडेंट हुआ हैl गाड़ी से उतरकर हम पैदल भागे, वहां बहुत भीड़ लगी हुई थीl मैंने देखा पंकज,गोविन्द चाचा और दादा ‘’खो गए हैं, सो गए हैं, दिल के अफसाने ‘’